आकिल हुसैन
वरिष्ठ पत्रकार।
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ज़माना बड़े शौक से सुन रहा था दहेज की दास्तां मेरी, मैं ही सो गई दास्तां कहते कहते— जी हां! आज हमारे समाज में दहेज प्रथा का प्रचलन काफी बढ़ गया है। जो पुरे समाज को एक खतरनाक बीमारी की तरह अपने चपेट में लेते जा रहा है। कहीं न कहीं उस बीमारी के चपेट में हम और आप भी आ गए हैं। अगर समय रहते दहेज प्रथा जैसी खतरनाक बीमारी को नही रोक पाएं,तो हमारा समाज बर्बाद हो जाएगा। तथा उस बर्बादी का जिम्मेदार हम और आप खुद होंगे। वैसे दहेज प्रथा का प्रचलन हमारे बहुसंख्यक समाज में ज्यादा रहा है। यही कारण रहा है कि दहेज को लेकर बहुसंख्यक समाज के शिक्षाविद व्यक्ति हमेशा इस्लाम धर्म की दोहाई देते रहे हैं। परंतू आज इस्लाम धर्म को मानने वाले भारत के अल्पसंख्यक समाज में भी दहेज का प्रचलन काफी बढ़ गया है। दहेज को लेकर आपसी दरार के कारण हमारे समाज में कई शादीशुदा लड़कियों की जिन्दगी बर्बाद हो गयी है। तथा कई ऐसी लड़कियां आज दहेज की व्यवस्था नही होने के कारण उनकी शादी समय पर नही हो पा रहा है। जिसका जिम्मेदार हमारा समाज है! अगर ऐसा नही है,तो राजस्थान की मुल निवासी व गुजरात के अहमदाबाद के वातवा में रहने वाली आयशा आरिफ खान नामक लड़की साबरमती नदी में हंसते हुए दिलों में दर्द लिए आत्महत्या नही करती! जिसके आत्म हत्या की वीडियो सोशल मीडिया खुब वायरल हो रही है। तथा वीडियो को देख-देखकर हर कोई दहेज को लेकर तरह-तरह की बातें जरूर कर रहे हैं। खेर अहमदाबाद पुलिस ने उनके पति राजस्थान के जालौर जिला निवासी आरिफ खान को राजस्थान से गिरफ्तार जरूर कर लिया है। परंतू आरिफ खान की गिरफ्तार से दहेज जैसी प्रथा समाज से समाप्त होने वाली नही है,बल्कि उसके खिलाफ पुरे समाज को आगे आने की जरूरत है। वैसे दहेज प्रथा जैसी बीमारी से कहीं न कहीं हमारे समाज का हर व्यक्ति मुबतिला हैं या होंगे! रही बात आयशा आरिफ खान की,तो उसने दुनिया को अलविदा जरूर कह दिया है,लेकिन उसने मरने से पहले जो विडियो वायरल किया है। उस वीडियो ने अल्पसंख्यक समाज के साथ-साथ बहुसंख्यक समाज को आयना देखाने एवं सोंचने पर मजबूर कर दिया है। दहेज की भेट चढ़ी आयशा आरिफ खान के पिता अहमदाबाद निवासी ने जिस बात का संदेश हम सारे भारतीय समाज को दिया है कि मेरी आयशा तो दुनिया से चली,मगर आप अपनी आयशा को न जाने दें। हमारा समाज हिन्दु-मुस्लिम से बाहर आऐं और अपने समाज की बेटियों को दहेज जैसी प्रथा से बचाने के लिए फिक्रमंद हों। ताकि दहेज जैसी प्रथा से देश की हजारों बेटियों की जिन्दगी तबाह व बर्बाद होने से बचाएं। दहेज प्रथा जैसी खतरनाक बीमारी को हम अपने समाज से कैसे उखाड़ फेंके! क्या दहेज सही मायने में हमारे समाज के लिए एक खतरनाक बीमारी बन गई है,तो फिर हमारा देश और समाज कोरोना जैसे खतरनाक बीमारी से लड़ रहा है। परंतू उस कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक बीमारी वर्षो से आ रही दहजे प्रथा जो हमारे समाज की रौनक बेटियों की जिन्दगी को तबाहों बर्बाद कर दिया है, उसका रास्ता निकालना वक्त की जरूरत है। वैसे दहेज लेन-देन का मसला हर दौर में बहस का मुद्दा रहा है। विशेष रूप से मुस्लिम समाज में इस पर हमेशा दोनों प्रकार की राय आती रही हैं। कतिपय लोगों का मानना है कि विवाह के बाद आमतौर पर नवविवाहित जोड़ों को घर बसाने के लिए मकान वर पक्षकी ओर से मिलता है,इसलिए उन्हें गृहस्थी चलाने के लिए बर्तन वधू पक्ष की ओर से मिलें तो कोई बुराई नहीं है। खासकर मुसलमानों में वधू को दहेज देने का एक और बड़ा कारण यह भी है। वास्तव में इस्लाम में पुत्री को पिता की सम्पत्ति में अधिकारी मानता है। यह अधिकार पुत्र से कुछ कम होता है। परंतू आमतौर पर मुस्लिम लड़की विवाह से पूर्व या पश्चातपिता की सम्पत्ति में अपने भाइयों से हिस्सा बांटने नहीं आती। पुत्री द्वारा हिस्सा मांगने की मिसालें अत्यन्त सीमित संख्या में बड़े जमींदार परिवारों में ही देखने में आती हैं। छोटे लोगों की बच्चीयों की सोच इस मामले में दूसरी है। सम्पत्ति में अपने हिस्सेकी कुर्बानी देकर बहन अपने भाइयों से मधुर रिश्ते बनाए रखती है। बदले में भाई भी आमतौर पर सदा उसके ऋणी बने रहते हैं। तथा उसे दान-दहेज देने में कंजूसी नहीं करते। दहेज जैसी प्रथा की ख्वाहिश रखने वाले लोग उसे इस्लाम में जायज बताते हैं। तथा महेशा यह तर्क दिया जाता है कि पैगम्बर साहेब ने भी अपनी पुत्री फातिमा की शादी में दहेज दिया था। फिर भले ही उसकी मात्रा कम ही रही हो। जबकि हकीकत यह है कि पैगम्बर साहेब ने अपनी पुत्री फातिमा की शादी के अवसर पर गृहस्थी के लिए आवश्यक चन्द वस्तुएं दहेज स्वरूप तौफा दिए थे। हदिस में कहीं भी उसे दहेज नाम से नही पुकारा गया है। बल्कि ज्यादा से ज्यादा आप उसे तौफा कह सकते हैं। दमाद हजरत अली खुद भी पैगम्बर साहेब की देख-रेख(कफालत) में थे। इसका मतलब यह है कि बेटी और दमाद दोनों ही पैगम्बर साहेब की जिम्मेदारी थे। इस लिए पैगम्बर साहेब ने कुछ जरूरत का सामान सहुलत के लिए दिया था,न कि वह दहेज की सकल में था। मुस्लिम समाज का यह मानना है कि पैगम्बर साहेब द्वारा ऐसा कोई भी कार्य किए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता,जो इस्लाम के अनुकूल न हो। अगर पैगम्बर साहेब की तमाम बातों को मानते है,तो फिर दहेज स्वरूप तौफा को हमने व्यवसायी क्यों बना दिया हैं?
जैसा कि ऊपर बताया गया है गृहस्थी जमाने के लिए चार बर्तन पुत्री को देने में बुराई नहीं है,परंतू यह देखने वाली बात है कि वे बर्तन हैं कैसे! आज आम निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार अपनी लड़की को शादी में 30 से 50 हजार रुपये तक कीमत के तांबे व पीतल के ऐसे बर्तन देता है,जो शायद ही कभी इस्तेमाल होते हों। खास बात यह है कि रोजमर्रा के इस्तेमाल के लिएस्टील,अल्युमिनियम,कांच और जहां तक संभव हो सके,चीनी मिट्टी के बर्तन अलग से दिए जाते हैं। मुस्लिम समाज में दहेज के बढ़ते चलन का यह एक उदाहरण भर है। इसके अलावा आभूषणों-कपड़ों के साथ फ्रिज,टीवी,फर्नीचर,बाईक या फिर कार आदि वस्तुऐं भी बतौर दहेज दी जाती हैं। अर्थ सम्पन्न लोग दहेज में फ्लैट,प्लॉट या फैक्ट्रियां तक देते हैं। इसके साथ-साथ बारात की उम्दा आवभगत व खानपान पर जो खर्च किया जाता है, वह अलग है। बहुसंख्यक वर्ग के लोगों के साथ अपने संबंधों के चलते यदि वरपक्ष शाकाहारी लोगों को भी बारात में लाए तो खाने का दोहरा प्रबंध करना वधूपक्ष की जिम्मेदारी होती है। परंतू इस पूरे मामले का जो सकारात्मक पक्ष नजर आता है, वह यही है कि अभी इन सारी चीजों की वर पक्ष की ओर से खुल कर मांग नहीं की जाती,अलबत्ता वह दहेज के लिएआशान्वित व लालायित जरूत रहता है। वह विवाह पूर्व दहेज की कोई मांग नहीं करसकता,कोई शर्त नहीं रख सकता। दहेज के तौर पर उसे वही स्वीकार करना पड़ताहै जोवधू पक्ष दे दे। इसके तीन कारण हैं। एक,दहेज व बारात की आवभगत के मामले में वधूपक्ष अपनी हैसियत के मुताबिक स्वयं ही कोई कसर नहीं छोड़ता। दो,मुस्लिम समाज में विवाह सम्बंधी मामलों में वधू पक्ष को वरीयता प्राप्त होती है। इस समाज में लड़की का रिश्ता तब तक निर्धारित नहीं किया जाता,जब तक वरपक्ष बाकायदा रिश्ते की मांग न करे। तीसरा कारण यह है कि धार्मिक वर्जना न होने के कारण मुसलमानों में शादी-ब्याह बहुतनिकट के रिश्तों में तय हो जाते हैं। यहां लड़की की शादी उसके ताया,चाचा,मामा या फूफाके पुत्र के साथ कर दी जाती है। अब इतनी निकट की रिश्तेदारियों में दहेज की मांग करने का सवाल आमतौर पर नहीं उठता।
वैसे इस्लाम धर्म में दहेज प्रथा गैर इस्लामी माना गया है। जिसकी तसदीक अब तो वर्ष 1972 में गठित ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी दहेज प्रथा को गैर इस्लामी करार दे दिया है। आयशा आरिफ खान के आत्महत्या की घटना के बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव हजरत मौलाना मो वली रहमानी ने अफसोस का इजहार करते हुए कहा कि यह घटना पुरे समाज को शर्मसार करने देने वाली है। उन्होने कहा कि यह घटना अफसोसनाक है। तथा हर समाज को फिकर करने के साथ आगे आने की जरूरत है। दहेज जैसी बीमारी को समाज से कैसे समाप्त किया जाए। उन्होने मुस्लिम समाज से कहा कि सरियत में दहेज लेना और देना दोनों हराम है। परंतू लोग इसकी पाबंदी नही करते हैं। मौलाना वली रहमानी ने कहा कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के द्वारा देश के अलग-अलग हिस्सों में दहेज प्रथा के खिलाफ अभियान चल रहा है। तथा दहेज प्रथा के खिलाफ अभियान जारी रहेगा।
फिर भी बोर्ड की चिन्ता बेवजह नहीं है। चिन्ता का सर्वप्रमुख कारण यह है कि वधूपक्ष मात्र अपनी पुत्री की जरूरत पूर्ति या खुशी के लिए ही नहीं,समाज में अपनी धाक कायम करने के लिए और बिरादरी या अपनी बराबरी के लोगों के बीच अपनी नाक बचाने के लिए भी दहेज देते हैं। यही कारण है कि चाहे-अनचाहे तमाम उपभोक्ता वस्तुएं दहेज में शामिल हो गई हैं। इनमें से कई चीजों का सही इस्तेमाल तो मध्यवर्गीय परिवारों में भी आसानी से नहीं हो पाता। या तो वर पक्ष के घर में ये चीजें रखने के लिए जगह नहीं होती,यदि होती भी है तो ये चीजें पहले ही उसके पास मौजूद होती हैं। इसके बावजूद वधूपक्ष ये सारी चीजें दहेज में देते हैं। तथा ज्यादातर मामलों में कर्ज लेकर देता हैं। जबकि इस्लाम धर्म में कर्ज को हराम करार दिया गया है। गौया कि हम लोग मनमाने तौर पर जो दहेज लेते है,कहीं न कही वह हराम है। इस प्रकार प्रतिष्ठादिखाने अथवा बहन का संसार संवारने का इच्छुक व्यक्ति अपने घर-संसार को तबाह कर बैठता है। तथा फिर समस्या यह भी है कि दहेज का प्रचलन देश के बहुसंख्यक वर्ग में कटु सच्चाई बन चुका है। वहां दहेज अब दिया नहीं,बल्कि लिया जाता है। ऐसा कहें कि दहेज वसूला जाता है। ज्यादातर मामलों में वहां वर की पैदाइश एवं परवरिश से लेकर पढ़ाई-लिखाई तथा नौकरी के लिए रिश्वत स्वरूप दी गई राशि तक वधूपक्ष से वसूली जाती है। वहां रिश्तों के तय होने में दहेज का मामला सर्वप्रमुख होता है। बहुसंख्यक जैसे हालात अल्पसंख्यक समाज में भी बढ़ गया। जो कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के साथ-साथ मुस्लिम समाज के हर मसलक के उल्मा की चिंता काफी बढ़ा दी है। अब तो समाज की ओर से उल्माओं पर दबाब बनाया जाने लगा है कि दहेज लेन-देन वाली शादी के निकाह का बहिष्कार करें। परंतू सवाल शादी के निकाह का बहिष्कार से मसला का हल नही है। बल्कि समाज में फैले दहेज प्रथा की बीमारी को समाप्त करने का है। मसला सिर्फ मुसलमानों की सोच का ही नहीं। बल्कि उन पर पड़ने वाले बहुसंख्यकों के प्रभाव का भी है। इन हालात के चलते यह कहना गलत नहीं है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मामले में पहल कदमी करके एक सार्थक कदम उठाया है। परंतू ध्यान रखने वाली बात यह है कि इस घोषणा से दहेज की समस्या का समाधान निकलने वाला नहीं है। असल हकीकत यह है कि समस्याओं से बिना किसी जन आन्दोलन के नहीं निबटा नही किया जा सकता। इस लिए प्रश्न यह है कि क्या ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड या फिर अन्य मसलक के उल्मा ऐसे किसी जन आन्दोलन का सहयोग लेना पसंद करेंगे? हमारा सवाल ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव से है! जिन्होने दीन बचाओ-देश बचाओ कांफ्रेंस पटना में आयोजित किया। जिसका अच्छा संदेश परे देश और दुनिया में जा सकता है। तो फिर घर की जिनत कहलाने वाली बेटियों के लिए दहेज हटाओ और बेटी बचाओ कांफ्रेंस क्यों नही करा सकते हैं। ताकि समाज से दहेज के खात्मा का संदेश पुरे देश के साथ-साथ पुरे दुनिया को जा सके। अब देखना है कि दहेज प्रथा जैसे खतरनाक बीमारी के खिलाफ हमारा समाज कब आवाज बुलंद करता है!